विवेक शून्य होती’’ ‘‘मीडिया’’ बनाम ‘कार्यपालिका’, ‘न्यायपालिका’ व समस्त तंत्र!* अनिकेश पाण्डेय
*-:लेख का सार:-*
उक्त महिला का टीवी के बाबत यह कथन था कि ‘‘यह ‘‘इंडियट बॉक्स’’ अर्थात ‘‘मूरख बक्सा’’ है’’। मतलब मूर्खो का, मूर्खो के लिये व मूर्खो के द्वारा चलाये जाने वाला बॅक्सा है। इस टिप्पणी के बाद शायद ही कुछ कहने को रह जाता है। सुशांत घटना की रिपोर्टिंग को लेकर डॉ. वैदिक आगे लिखते हैं, हमारे टीवी चैनल ‘‘लगभग पगला गये है’’। आगे मैं इसे पूरा कर इस लेख का समापन करता हूं। सिर्फ चैनल ही नहीं पगला सा गये, बल्कि उन्होनें इस देश की भोली-भाली जनता को भी (टीआरपी के चक्कर में) लगभग पगला सा दिया है। इस प्रकार ‘‘सुशांत’’ को ‘‘शांत’’ न करने में राजनैतिक व मीडिया के हितों को दोनों के प्रयासों से साधा जा रहा है।
* ‘‘विवेक शून्य होती’’ ‘‘मीडिया’’ बनाम ‘कार्यपालिका’, ‘न्यायपालिका’ व समस्त तंत्र!*
अनिकेश पाण्डेय
(लेखक एवम युवा सलाहकार)
पिछले लगभग ढ़ाई महीनों (14 जून) से लगभग लगातार शायद ही कोई ऐसा दिन जाया हो, जब ‘‘मीडिया’’ एक विशेषज्ञ (स्पेशलिस्ट) ‘‘डॉक्टर‘‘ के समान सुशांत प्रकरणब की ‘‘चीर फाड़‘‘ न कर रहा हो। हमारे सामने अनेकानेक ऐसे उदाहरण हैं, जब ‘‘शव‘‘ के एक नहीं, दो दो, तीन तीन बार ‘पोस्टमार्टम‘ किए गए हैं। बल्कि कुछ मामलों में तो दफनाए गए शव को जमीन से निकालकर उनका पुनः पोस्टमार्टम किया गया है। शायद इसीलिए तीव्र कार्य क्षमता व कुशलता दिखाने के चक्कर में ‘मीडिया‘ जांच एजेंसी पुलिस सीबीआई की तुलना में एक ही ‘शव‘ का दिन प्रतिदिन पोस्टमार्टम कर रहा है। जिसमें पाए गए तथाकथित ‘‘साक्ष्यों’’ के आधार पर अपनी राय जिसमें कुछ तथ्यों के व कुछ काल्पनिक व भविष्य लक्ष का आंकलन भी शमिल रहता है, के साथ रिपोर्ट भी बेबाक आपके सामने तुरंत फुरंत प्रस्तुत कर देता है। जबकि उक्त रिपोर्ट को पुलिस से लेने में हफ्तों लग जाते हैं। मेरी तो समझ से बाहर हो रहा है कि केंद्रीय सरकार और स्वयं केंद्रीय जांच अन्वेषण ब्यूरों (सीबीआई) के कान में जूं क्यों नहीं रेंग रही है कि, जब इतनी ‘‘अच्छी जांच‘‘ हमारे लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण प्रहरी ‘‘चौथा स्तंभ‘‘ ‘‘मीडिया‘‘ कर लेती है,तो अधिकृत रूप से मीडिया को ही पुलिस एवं सीबीआई का ‘‘कार्य भार’’ क्यों न सौंप दिया जाए? इसके कई ‘‘फायदे‘‘ होगें। आइए देखते हैं।
पहली बात तो मीडिया ‘स्वयं ही प्राथमिकी तुरंत दर्ज‘ कर लेता है? जिसे दर्ज करने में पुलिस को हफ्तों महीनों लग जाते हैं। और तो और कई बार दर्ज ही नहीं हो पाती है। मीडिया को शिकायत दर्ज करने के लिए आवश्यक रूप से हमेशा शिकायतकर्ता की आवश्यकता नहीं होती है? जैसा कि कई बार घटनाओं का ‘‘न्यायालय’’ स्वतः संज्ञान ले लेते है। जबकि सामान्य प्रक्रिया में शिकायतकर्ता की शिकायत पर ही पुलिस प्राथमिकी दर्ज करती है। फिर जांच के लिए भी मीडिया को कोई लंबी चौड़ी फौज या तंत्र की आवश्यकता नहीं होती है? उसके पास उपलब्ध तंत्र व साधनों से वह सीबीआई से ज्यादा तेजी से ‘‘प्रभावी‘‘ जांच कर लेती है। तदुपरान्त ‘गवाह‘ बुलाने के लिए और उनकी ‘उपस्थिति सुनिश्चित‘ करने के लिए भी मीडिया को पुलिस के समान ‘‘सम्मन‘‘ भेजने की आवश्यकता नहीं पड़ती है? क्योंकि मीडिया के एक इशारें पर गवाह ‘सम्मन‘ के बदले ‘सम्मान पूर्वक‘ ‘‘पूछताछ रूम‘‘ अर्थात स्टूडियों में पहुंच जाता है? फिर मीडिया के पास जांच का एक ऐसा ‘विशेषाधिकार‘ है, जो पुलिसिया जांच एजेंसी के पास नहीं है। ‘‘स्टिंग ऑपरेशन‘‘! इसके जरिए मीडिया सीबीआई की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली ढ़ग से जांच कर लेती है?
इन सब से भी बढ़कर मीडिया को गवाहों (साक्ष्यों) जिनका मुकदमें का अंतिम निष्कर्ष तक पहंुचाने में महत्वपूर्ण योगदान होता है, को बुलाने में न तो उन्हें कोई सुरक्षा प्रदान करनी होती है, (जैसा कि अभी तो सीबीआई को आरोपी रिया तक को सुरक्षा प्रदान करनी पड़ गई) और न ही उन्हें कोई ‘भत्ता‘ देना होता है। मीडिया तो मात्र एक कप ‘‘चाय‘‘ का प्याला पिलाकर अपना काम अच्छे से चला लेती है। कई बार आपने स्वयं मीडिया बहसों में भागीदार वक्ताओं को चाय की चुस्की लेते हुए देखा होगा। क्योंकि मीडिया भी जानती हैं कि वर्तमान युग में ‘‘चाय‘‘ का कितना महत्व है? फिर गवाहों के होस्टाइल (विरूद्ध गवाह) होने की कोई आशंका भी न के बराबर ही रहेगी? क्योंकि यहां पर तो गवाह बिना किसी दबाव के स्वयं ही तीव्र इच्छा लिए मीडिया की‘ पूछताछ रूम‘ स्टूडियो में पहुंच कर अपने को गर्वीला महसूस करते हैं? चूंकि मीडिया अपने जांच प्लेटफार्म पर हमेशा दो तीन विशेषज्ञों को भी भी जांच में सहयोग देने के लिए रखता है (जिस प्रकार न्यायालय में एमिकस क्यूरी के रूप में वकील सहायता देने के लिए होते हैं) इसलिए यहां वकीलों की भी आवश्यकता नहीं होगी?
इन सब में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि आपको इस बात का फायदा ही मिलेगा कि न्याय पाने के लिए, निर्णय के लिए लंबे समय तक ‘इंतजार‘ नहीं करना पड़ेगा। ‘‘त्वरित न्याय‘‘ की जो कल्पना हमारे संविधान निर्माताओं ने की है और जिसकी पूर्ति अभी तक हमारा विद्यमान वर्तमान न्याय तंत्र नहीं दे पाया है। उक्त कमी की पूर्ति भी मीडिया ने इंस्टेंट टी (चाय) के समान तुरंत निर्णय प्रदान कर जांच मुकदमा पूरा हुए बिना ही, न्याय कर दिया है? आत्महत्या को हत्या घोषित कर रिया की गिरफ्तारी की मांग मीडिया में तेजी से उठ रही है। भला हो मीडिया का! गनीमत तो यह है कि यद्यपि आरोपी को दोषी तो मान लिया है, लेकिन उसने अभी तक उसे सजा (फांसी की) नहीं सुनाई है। एक बात और; तथ्यों के प्राप्त होते ही मीडिया तुरंत निष्कर्ष पर पहुंच जाता है, बल्कि कुछ मामलों में तो वह पहले से ही निश्चित (आंकलित) निष्कर्ष (नरेटिव) मानकर जांच करता है। इसीलिए उसे निर्णय देने में कभी भी देरी नहीं होती है। एक चैंनल ने तो सीबीआई के रिया के सीबीआई द्वारा पूछताछ (इंटेरोगेशन) किए जाने के पूर्व ही सीबीआई द्वारा पूछे जाने वाले तथाकथित प्रश्नों को गढ़कर स्वयं ही रिया से पूछताछ कर ली।
इस प्रकार समस्त ‘‘जिम्मेदार एजेंसीज के नकारा’’ हो जाने के कारण मीडिया को ‘‘जांच एजेंसी‘‘ बना देने से ‘‘कितने फायदे‘‘ होंगे? इसकी गिनती की है आपने? लंबी चौड़ी संख्या में जांचकर्ता, सीबीआई, एसटीएफ, नारकोटिक्स, नारको, चिकित्सीय विभाग, फॉरेंसिक मेडिको लीगल, डीआई, ‘ईडी’, वकील, न्यायाधीश गण इन सब की छुट्टी हो जाएगी। इस प्रकार इन सब पर होने वाले जनता को अनगिनत खर्चों के पैसे भी बच जाएंगे? मीडिया के जांच एजेंसी बन जाने से प्राप्त न्याय की गुणवत्ता पर भी कोई शक नहीं होना चाहिए? क्योंकि आप लगातार यह देख रहे हैं कि मीडिया उपरोक्त उल्लेखित समस्त कार्यों को स्वयं ही पूरी ‘‘निष्पक्षता’’ व ‘‘ईमानदारी’’ से सफलतापूर्वक परिणित कर रही है? (यद्यपि मीडिया की निष्पक्षता, ईमानदारी व सफलता पर विस्तृत चर्चा पृथक रूप से फिर कभी करेगें)। पिछले ढ़ाई महीनों से सफलतापूर्वक चल रहे ‘‘मीडिया ट्रायल‘‘ ने उपरोक्त समस्त निष्कर्षों को सिद्ध कर दिया है। शक की कतई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है। वैसे, मीडिया का भी हमेशा से यही दावा रहा है कि ‘‘सत्य को सामने लाना‘‘ और ‘‘सच का सामना करवाना‘‘ यही उसका वैधानिक संवैधानिक प्रथम दायित्व है। ऐसा वह न केवल मानता है बल्कि उसका पूरी ईमानदारी से पालन भी करता है। सत्यमेव जयते! इसलिए कि सुशांत प्रकरण में समस्त पक्ष सत्यमेव जयते अवश्य दुहराते हैं। सच लाने के प्रयास में मीडिया ने सरकार के उक्त दावे को भी सच ही सिद्ध कर दिया कि, देश में ध्वस्थ होती कानून व्यवस्था, खिसकती सामाजिक व्यवस्था, साम्प्रदायिक विषाक्तता, भुखमरी, हाहाकार करती बेरोजगारी, आर्थिक मंदी भारत-नेपाल-चीन तनाव, राष्ट्रीय सुरक्षा आदि कोई समस्या है ही नहीं जैसा कि ‘‘विपक्षी’’ बेकार में आरोप लगाते रहते हैं। जनता ने भी इन समस्त समस्याओं की तुलना में देश की वर्त्तमान एकमात्र समस्या ‘सुशांत’ है जिसके शांत न होने के मीडिया के प्रयास पर जनता ने मोहर भी लगा दी है। (टीआरपी बढ़ाकर?)
एक बात और! इस बात का बड़ा दुख रहेगा कि भारतीय प्रेस काउंसिल ने उपरोक्त सुशांत मामले में चल रही ‘‘मीडिया ट्रायल‘‘ पर शुक्रवार को एक एडवाइजरी जारी कर अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति मान लिया है! यह ठीक उसी प्रकार है जिस प्रकार सरकार ने एक कानून बना दिया है जिसके अनुसार सिगरेट या शराब के उत्पादों पर एक चेतावनी आवश्यक रूप से चिपका दी जाती है कि ‘‘यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है‘‘ और तदनुसार सरकार स्वयं को कर्तव्य से मुक्त मान लेती है। क्या प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया ने अपने निर्देश जारी करने के बाद उसके प्रभाव की कोई समीक्षा की? और यदि जारी उन निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है तो, क्या प्रभावी कार्रवाई की गई या करने का निर्णय लिया गया? ‘परिषद’ को आगे आकर जनता को बतलाना ही होगा। क्या आपको लगता नहीं है कि सुशांत प्रकरण के लगातार ऊलूल जुलूल दिशाहीन, तर्कहीन प्रसारण ने मीडिया को मजाक का विषय बना दिया हैं?
मीडिया के एक साथी जो ‘सिरफिरा’ ही कहलाएगा, ने कहा कि सीबीआई घटना की जांच नहीं कर रही है, बल्कि मीडिया सीबीआई की ‘जांच‘ कर रही है। उपरोक्त दोनों बातें निर्णय हेतु आपके विवेक पर छोड़ देता हूं! चंूकि सिक्के के दो पहलू होते हैं। इसलिए इस मुद्दे के दूसरे पहलू को भी देखिए। सुशांत फिल्म कलाकार होने के कारण यद्यपि आम जनता के लिए एक थोड़े बहुत सेलिब्रिटी अवश्य थे, लेकिन फिल्मी दुनिया में वे मात्र एक आम सामान्य कलाकार ही थे। बस परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गई थी कि वे एक दया के पात्र भी हो गए थे (शायद यही कारण उनकी आत्महत्या का रहा होगा) आत्महत्या के पूर्व ‘‘सुशांत’’ नाम से कितने लोग परिचित थे? लेकिन मीडिया से लेकर संबंधित समस्त आवश्यक तंत्रों ने इस आम आदमी के साथ घटित घटना के सच को बाहर लाने का जो साहसिक और भागीरथी प्रयास अभी तक किया है, उसके लिए आप क्या उन्हें धन्यवाद भी प्रेषित नहीं करेंगे? वह इसलिए क्योंकि अब ‘‘आम आदमी‘‘ को यह अवश्य महसूस होने लगेगा कि, भविष्य में आम आदमी की सुनवाई हमेशा होगी, वह भी ‘आम तरीके‘ से नहीं बल्कि ‘विशिष्ट तरीकों ‘से ध्यान पूर्वक होगी।
अंत में डॉ. वेदप्रताप वैदिक की मीडिया पर की गई सटीक टिप्पणी का (साभार) उल्लेख करने से मैं अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूं। डॉ. वैदिक से न्यूर्याक में हुई अमेरिकन महिला मदाम क्लेयर से हुई मुलाकात में उक्त महिला का टीवी के बाबत यह कथन था कि ‘‘यह ‘‘इंडियट बॉक्स’’ अर्थात ‘‘मूरख बक्सा’’ है’’। मतलब मूर्खो का, मूर्खो के लिये व मूर्खो के द्वारा चलाये जाने वाला बॅक्सा है। इस टिप्पणी के बाद शायद ही कुछ कहने को रह जाता है। सुशांत घटना की रिपोर्टिंग को लेकर डॉ. वैदिक आगे लिखते हैं, हमारे टीवी चैनल ‘‘लगभग पगला गये है’’। आगे मैं इसे पूरा कर इस लेख का समापन करता हूं। सिर्फ चैनल ही नहीं पगला सा गये, बल्कि उन्होनें इस देश की भोली-भाली जनता को भी (टीआरपी के चक्कर में) लगभग पगला सा दिया है। इस प्रकार ‘‘सुशांत’’ को ‘‘शांत’’ न करने में राजनैतिक व मीडिया के हितों को दोनों के प्रयासों से साधा जा रहा है।
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